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Wo bhi kya din the-वो भी दिन क्या दिन थे ?

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वो भी क्या भी दिन थे ?   राह  में जब कभी बस रुकती  किसी अजनबी के हाथों पानी और बिस्किट मंगवाते थे । हाथ में होता था मक्के का रोट और मक्खन और सरसों का साग जिसका बगल वाले अजनबी दोस्त के संग बांटकर चटकारा मारा करते थे। गपशप करते हुए रास्ते का फासला कम करते थे। आज बात करते है तो मन ही मन कहता है साला पागल है । आज के दिन देखते है बस में  लिखा होता है कि किसी अजनबी से कुछ ना ले। इंसान इतना लालची हो गया बातों में लेकर बहोशी का बिस्किट खिला कर चपत लगा देता है। घर में रखा नौकर कोई लूट रहा और कोई मार रहा । विरला ही है जो साथ निभा रहा है। कुत्ता जानवर  होकर भी पूर्ण निष्ठा से इंसान के साथ अपनी वफादारी निभा रहा है। हर कोई उदास है और हंसी गायब है क्योंकि घर में साथ साथ खाना खिलाने वाली थाली रसोई से गायब है। अब तो फंक्शन हो या घर प्लेट का राज कायम है तभी तो रिश्तों में संवाद कम है।मस्तक पटल पर प्रश्न चिन्ह उठता है, " वो भी क्या दिन थे? -नरेन्द्र सिंह राठौड़